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जातिगत गणना क्यों है ज़रूरी? जानिए इसके फायदे और चुनौतियाँ!!!!

2 May 2025 by
THE NEWS GRIT

भारत में जातिगत संरचना को समझने के प्रयास लंबे समय से होते रहे हैं। ब्रिटिश शासन काल के दौरान 1881 से लेकर 1931 तक की जनगणनाओं में जातियों का विस्तार से दस्तावेजीकरण किया गया था। देश में आखिरी पूर्ण जाति आधारित जनगणना 1931 में ब्रिटिश शासन के दौरान ही कराई गई थी। इसके बाद, स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद 1951 में जब आज़ाद भारत की पहली जनगणना हुई, तब सरकार ने एक बड़ा बदलाव करते हुए केवल अनुसूचित जातियों और जनजातियों की ही जातिगत गणना कराने का निर्णय लिया। हालांकि वर्षों बाद अब एक बार फिर केंद्र सरकार ने इस दिशा में पहल की है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अध्यक्षता में हुई केंद्रीय कैबिनेट बैठक में आगामी जनगणना में जाति आधारित आंकड़ों को शामिल करने का ऐतिहासिक निर्णय लिया गया है।

केंद्रीय सूचना एवं प्रसारण मंत्री अश्विनी वैष्णव के अनुसार, पूर्ववर्ती सरकारें इस विषय पर स्पष्ट रुख नहीं अपना सकी और जाति जनगणना की बजाय कुछ राज्यों में आंशिक जाति सर्वेक्षण कराए गए, जो पूर्ण नहीं थे। अब सरकार द्वारा प्रस्तावित नई जनगणना में सभी वर्गों की जातिगत स्थिति को दर्ज करने की योजना है। यह निर्णय समाज के विविध तबकों के प्रतिनिधित्व, सामाजिक कल्याण योजनाओं की पुनर्रचना और आर्थिक असमानता को बेहतर समझने की दिशा में महत्वपूर्ण कदम माना जा रहा है।

जातिगत गणना क्या है इसका अर्थ और महत्व?

जातिगत गणना का सीधा अर्थ है – देश की जनसंख्या में मौजूद विभिन्न जातियों की गिनती और उनका विवरण एकत्र करना। इसमें यह देखा जाता है कि कौन-कौन सी जातियाँ कितनी संख्या में हैं, उनका सामाजिक-आर्थिक स्तर क्या है, वे किन क्षेत्रों में निवास करती हैं, और किन सेवाओं तक उनकी पहुँच है। यह सिर्फ संख्या की बात नहीं है, बल्कि इससे यह भी समझने में मदद मिलती है कि समाज में संसाधनों और अवसरों का बँटवारा कितना संतुलित है। जातिगत आंकड़े सरकार को यह जानने में मदद करते हैं कि कौन-से वर्ग अब भी पीछे हैं और किन्हें विशेष सहायता की जरूरत है। इसलिए, जातिगत गणना केवल आंकड़ों का संकलन नहीं, बल्कि सामाजिक न्याय और समावेशी विकास की दिशा में एक आवश्यक कदम माना जाता है।

क्या बदल सकता है जातिगत गणना के बाद का सामाजिक परिदृश्य?

देश में व्यापक जातिगत गणना होती है, तो इसका सीधा असर आरक्षण नीति पर पड़ सकता है। विशेष रूप से अन्य पिछड़ा वर्ग (OBC) से जुड़े संगठन लंबे समय से यह मांग कर रहे हैं कि उन्हें आबादी के अनुपात में आरक्षण मिले। वर्तमान में OBC को 27% आरक्षण प्राप्त है, लेकिन 2019 में केंद्र सरकार द्वारा आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों (EWS) को 10% आरक्षण दिए जाने के बाद यह बहस और तेज हो गई कि आरक्षण की वर्तमान 50% सीमा अब यथार्थ से मेल नहीं खाती। दरअसल, यह सीमा इसलिए तय की गई थी क्योंकि 1931 के बाद सरकार के पास जाति आधारित विश्वसनीय आंकड़े नहीं थे। लेकिन यदि नई जातिगत गणना होती है, तो न केवल यह आँकड़े उपलब्ध होंगे, बल्कि आरक्षण की सीमा बढ़ाने का संवैधानिक आधार भी मजबूत होगा। इससे संबंधित कानूनी बाधाएँ भी काफी हद तक समाप्त हो सकती हैं। गौरतलब है कि कांग्रेस पार्टी ने भी आरक्षण की वर्तमान 50% सीमा को यथास्थिति से आगे बढ़ाने के पक्ष में अपनी राय सार्वजनिक रूप से प्रकट की है।

संविधान और न्यायालय का दृष्टिकोण

जातिगत आरक्षण पर सुप्रीम कोर्ट का ऐतिहासिक फैसला (जैसे इंदिरा साहनी बनाम भारत सरकार, 1992) उल्लेखनीय है, जिसमें 50% आरक्षण सीमा को निर्धारित किया गया था। जातिगत गणना से जुड़े नए आंकड़े यदि सामने आते हैं, तो इस सीमा पर पुनर्विचार की मांग उठ सकती है।

सांख्यिकीय आधार पर नीति निर्माण की जरूरत

सरकारी योजनाएं और नीतियाँ समाज के विभिन्न वर्गों की सामाजिक-आर्थिक स्थिति पर आधारित होती हैं, जिससे उनके लिए उपयुक्त योजनाएं बनाई जाती हैं। लेकिन, यदि जाति आधारित आंकड़े अद्यतित नहीं होते, तो नीति निर्माण में असंतुलन हो सकता है। उदाहरण के तौर पर, अगर किसी जाति या समुदाय के लिए योजना बनाई जाती है, लेकिन उसके बारे में पुरानी या गलत जानकारी होती है, तो योजना का उद्देश्य सही तरीके से पूरा नहीं हो पाता।

जातिगत गणना के अद्यतन आंकड़े सरकार को यह समझने में मदद करेंगे कि कौन से वर्ग अभी भी विकास से पीछे हैं और किन्हें विशेष सहायता की आवश्यकता है। इससे योजनाओं की लक्ष्यता और प्रभावशीलता बढ़ेगी, और समाज के हर वर्ग तक लाभ पहुँचाना सरल होगा। इसलिए, जातिगत गणना नीति निर्माण को सही दिशा में सशक्त बनाने के लिए एक महत्वपूर्ण कदम है।

आर्थिक असमानता और विकास

जातिगत गणना से सरकार को यह भी मदद मिल सकती है कि वह आर्थिक असमानता का विश्लेषण कर सके। देश में बहुत से ऐसे समुदाय हैं जो अभी भी आर्थिक रूप से पिछड़े हुए हैं, और उनके लिए सरकारी योजनाओं का पुनः मूल्यांकन किया जा सकता है। जातिगत आंकड़ों के आधार पर सरकार आर्थिक योजनाओं को अधिक प्रभावी और समावेशी बना सकती है, जिससे विकास के अवसर सभी समुदायों तक पहुँच सकें।

समाज में विभिन्न प्रतिक्रियाएँ

जातिगत गणना पर विभिन्न राजनीतिक दलों और समाज के अलग-अलग वर्गों की प्रतिक्रियाएँ मिल रही हैं। जहां कुछ इसे एक स्वागत योग्य कदम मानते हैं, वहीं कुछ इसे समाज में और अधिक विभाजन पैदा करने वाली प्रक्रिया मानते हैं। इस प्रकार की प्रतिक्रियाओं का उल्लेख करते हुए यह कहा जा सकता है कि जातिगत गणना एक संवेदनशील मुद्दा है, जिसे संतुलित और विचारशील तरीके से संबोधित किया जाना चाहिए।

जातिगत गणना का मुद्दा भारतीय समाज और राजनीति में एक महत्वपूर्ण कदम है, जो न केवल सामाजिक न्याय को सुनिश्चित करने की दिशा में अहम है, बल्कि देश के आर्थिक और शैक्षिक परिदृश्य को भी बेहतर तरीके से समझने का अवसर प्रदान करता है। 1931 के बाद जाति आधारित आंकड़ों के अभाव में कई महत्वपूर्ण निर्णयों में असंतुलन था, जिससे समाज के कुछ वर्गों तक योजनाओं का लाभ सही तरीके से नहीं पहुँच पाया।

केंद्र सरकार द्वारा जातिगत गणना के प्रस्ताव से सामाजिक असमानताओं को समझने और उन्हें दूर करने के लिए एक ठोस आधार मिलेगा। यह कदम विशेष रूप से आरक्षण नीति को पुनः मूल्यांकित करने का अवसर भी प्रदान करेगा, जिससे आरक्षण की सीमा और पात्रता पर नये सिरे से विचार किया जा सकता है। हालांकि, जातिगत गणना से जुड़ी राजनीतिक और सामाजिक प्रतिक्रियाएँ मिश्रित हो सकती हैं, परंतु यह एक ऐसा कदम है, जो सही तरीके से लागू होने पर देश के विभिन्न वर्गों के बीच समानता और समावेशिता को बढ़ावा दे सकता है।

इसलिए, जातिगत गणना को समाज और नीति निर्माण के संदर्भ में सही तरीके से उपयोग करना अत्यंत महत्वपूर्ण है, ताकि यह न केवल आंकड़ों का संकलन हो, बल्कि समाज के हर वर्ग की वास्तविक जरूरतों को पहचानकर उसके हिसाब से योजनाएँ बनाई जा सकें। इसके परिणामस्वरूप, भारत में एक अधिक समतामूलक और समावेशी समाज का निर्माण संभव हो सकेगा।

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THE NEWS GRIT 2 May 2025
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