Skip to Content

कलम के शहीद सच के लिए जान देने वाले पत्रकारों को सलाम!!

3 May 2025 by
THE NEWS GRIT

विश्व प्रेस स्‍वतंत्रता दिवस हर साल 3 मई को मनाया जाता है। यह दिन उन पत्रकारों को सम्मान देने का अवसर है जो समाज के सामने सच लाने के लिए अनगिनत जोखिम उठाते हैं। विश्व प्रेस स्‍वतंत्रता दिवस हमें अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के महत्व की याद दिलाता है। आज का दिन विशेष रूप से उन साहसी पत्रकारों को समर्पित है जिन्होंने सत्य के लिए अपनी जान तक गंवा दी। उनके संघर्ष और बलिदान हमें सच्चाई की राह पर अडिग रहने की प्रेरणा देते हैं।

कलम की ताकत दुनिया की सबसे मजबूत ताकतों में से एक है, जो बिना ध्वनि के उस सच्चाई और विचार को जाहिर करती है जो दुनिया में बदलाव लाते हैं। कलम हमारे विचारों को स्वतंत्र रूप से प्रकाशित करने का एक खूबसूरत माध्यम है। यही वह मजबूत औजार है जो सत्ता से सवाल पूछता है और दुनिया के सभी लोगों तक सच पहुंचाने का कार्य करता है। आइए जानें उन निर्भय पत्रकारों के बारे में, जिन्होंने अपनी जान देना मंजूर किया लेकिन अपनी कलम को सच लिखने से नहीं रोका। जिनके नाम इतिहास में उस सच्चाई को उजागर करने के लिए दर्ज हैं, जिसके कारण उनकी जान ले ली गई।

यदि आंकड़ों की बात करें तो, वर्ष 2000 से अब तक दुनिया भर में 2003 पत्रकार मारे गए हैं। केवल पिछले वर्ष ही 67 पत्रकारों की हत्या हुई थी, और जनवरी 2025 से अब तक दुनिया भर में 15 पत्रकार मारे जा चुके हैं। वर्ष 2015 से 2024 के बीच 139 पत्रकारों की हत्या हुई। वहीं, फिलीस्तीन में 747 पत्रकार या तो बंधक बनाए गए, गायब कर दिए गए या हिरासत में लिए गए हैं।

मौलवी मुहम्मद बाकिर भारतीय पत्रकारिता के इतिहास में एक ऐसे नाम हैं, जिन्होंने अपने विचारों और लेखनी से आज़ादी की लड़ाई में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। 1780 में जन्मे बाकिर ने "दिल्ली अखबार" की शुरुआत की और उसे ब्रिटिश हुकूमत की नीतियों के खिलाफ आवाज़ उठाने का एक माध्यम बना दिया। वे अपने लेखों के माध्यम से न केवल औपनिवेशिक शासन की कड़ी आलोचना करते थे, बल्कि हिन्दू-मुस्लिम एकता को भी आज़ादी की कुंजी मानते थे। उनका विश्वास था कि यदि दोनों समुदाय एकजुट हो जाएं तो स्वतंत्रता प्राप्त करना संभव है। उन्होंने अपने अखबार में क्रांतिकारियों के विचार, पत्र और संदेशों को भी प्रमुखता दी, जिससे जनता में जागरूकता फैली। लेकिन उनका यह साहसी कदम ब्रिटिश शासन को सहन नहीं हुआ। 14 सितंबर 1857 को उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया और बिना किसी विधिक प्रक्रिया के मात्र दो दिन बाद, 16 सितंबर को मौत की सजा दे दी गई। मौलवी बाकिर भारतीय इतिहास के पहले ऐसे पत्रकार बने जिन्होंने सच बोलने और जनता को एकजुट करने के लिए अपने प्राणों की आहुति दी।

गणेश शंकर विद्यार्थी उन विरले पत्रकारों में से थे, जिन्होंने न केवल कलम से लड़ाई लड़ी, बल्कि ज़मीन पर उतरकर भी इंसानियत के लिए अपने प्राण न्यौछावर कर दिए। 26 अक्टूबर 1890 को जन्मे विद्यार्थी ने 1913 में कानपुर से 'प्रताप' अखबार की शुरुआत की, जो जल्द ही अत्याचार और अन्याय के विरुद्ध उठने वाली बुलंद आवाज़ बन गया। अंग्रेजों द्वारा भारतीयों पर किए जा रहे अत्याचारों को उजागर करने के कारण उन्हें कई बार जेल की सजा भुगतनी पड़ी, पर उन्होंने कभी सच से समझौता नहीं किया।

‘प्रताप’ ने जनता के बीच ऐसा भरोसा पैदा किया कि अंग्रेजी दमन के बावजूद उसका पाठक वर्ग लगातार बढ़ता गया। इतना ही नहीं, जब विद्यार्थी जेल में थे, तो पाठकों ने मिलकर उनकी रिहाई के लिए 400 रुपये तक एकत्र किए – जो उस समय एक बड़ी राशि मानी जाती थी। 1931 में जब कानपुर सांप्रदायिक दंगों की आग में जल रहा था, तब विद्यार्थी ने केवल लेखनी से ही नहीं, बल्कि अपने प्राणों से भी शांति स्थापित करने का प्रयास किया। वे गुस्साई भीड़ को शांत कराने के लिए खुद बीच में गए, लेकिन इस कोशिश में उन पर चाकू से हमला हुआ और उनकी जान चली गई। 25 मार्च 1931 को, मात्र 41 वर्ष की आयु में, उन्होंने मानवता और सद्भाव की रक्षा करते हुए बलिदान दे दिया। उनकी लाश इतनी बुरी तरह की स्थिति में थी कि पहचानना भी कठिन हो गया था। गणेश शंकर विद्यार्थी का जीवन इस बात की मिसाल है कि सच्चाई के मार्ग पर चलना कठिन जरूर होता है, लेकिन वह लोगों के दिलों में अमिट छाप छोड़ता है।

जेम्‍स फोली अमेरिकी पत्रकार की कहानी पत्रकारिता के जोखिम और बलिदान की एक दर्दनाक मिसाल है। 2012 में वे सीरिया में चल रहे गृह युद्ध की रिपोर्टिंग करने पहुँचे थे, जहाँ उन्हें आतंकवादी संगठन आईएस द्वारा अगवा कर लिया गया। लगभग 22 महीनों तक बंदी बनाकर रखने के बाद, इन आतंकियों ने क्रूरता की सारी सीमाएं पार करते हुए फोली की हत्या कर दी। उनकी निर्मम हत्या का वीडियो बनाकर आतंकियों ने उसे सोशल मीडिया पर भी फैलाया, जिससे पूरी दुनिया कांप उठी। इस नृशंस कृत्य के पीछे कारण था अमेरिका द्वारा इराक में आईएस के खिलाफ चलाया गया सैन्य अभियान। आतंकियों ने फोली की हत्या को उसी अभियान का ‘जवाब’ बताया। जेम्स फोली उन पत्रकारों में से थे, जो सच और ज़मीनी हकीकत को दुनिया के सामने लाने के लिए सबसे खतरनाक जगहों तक जाने से भी नहीं हिचकिचाते थे।

शोएबुल्‍लाह खान (जन्म: अक्टूबर 1920 – मृत्यु: 22 अगस्त 1948) एक निर्भीक और प्रतिबद्ध पत्रकार थे, जो 'इमरोज' अखबार से जुड़े थे। उन्होंने हैदराबाद रियासत के भारत में विलय का जोरदार समर्थन किया और निजाम सरकार की तानाशाही और साजिशों को बेनकाब करने का काम किया। उनके लेखों में स्पष्ट रूप से भारत की एकता और लोकतंत्र का पक्ष लिया गया था, जो निजाम सरकार को खटकने लगा। उन्हें लगातार धमकियाँ दी गईं—कहा गया कि अगर उन्होंने लिखना बंद नहीं किया तो उनके हाथ काट दिए जाएंगे और जान भी ली जा सकती है। लेकिन शोएबुल्लाह अपने सिद्धांतों से डिगे नहीं और सच लिखते रहे। 22 अगस्त 1948 की रात, जब वे घर लौट रहे थे, तभी चार हमलावरों ने बेरहमी से उनके दोनों हाथ काट दिए और उन पर गोलियां चला दीं। कुछ घंटों के भीतर उन्होंने दम तोड़ दिया। उनकी शहादत ने यह साबित कर दिया कि सच्चाई और राष्ट्रभक्ति के लिए लड़ने वाले पत्रकार केवल खबरें नहीं लिखते—वे इतिहास गढ़ते हैं।

ज्योतिर्मय डे, का जन्‍म 1955 में हुआ। जिन्हें पत्रकारिता जगत में ‘जेडे’ के नाम से जाना जाता था, अंडरवर्ल्ड की दुनिया पर निर्भीक रिपोर्टिंग के लिए प्रसिद्ध थे। वे ‘मिड-डे’ अखबार से जुड़े हुए थे और माफिया नेटवर्क, खासकर दाऊद इब्राहिम और छोटा राजन जैसे कुख्यात डॉनों की गतिविधियों पर गहरी नज़र रखते थे। उन्होंने अंडरवर्ल्ड की दुनिया पर दो चर्चित किताबें भी लिखीं-‘जीरो डायल: द डेंजरस वर्ल्ड ऑफ इनफॉर्मर्स’ और ‘खल्लास’।

जेडे उन दिनों ‘चिंदी: रेग्स टू रिचेस’ नामक एक नई किताब पर काम कर रहे थे, जिसमें छोटा राजन की छवि को छोटा और मामूली दिखाने की तैयारी थी। इसी बात से नाराज होकर छोटा राजन ने उनकी हत्या की साजिश रची। 11 जून 2011 को बाइक सवार शूटर्स ने दिनदहाड़े उन्हें गोली मार दी। ज्योतिर्मय डे ने अपनी कलम के बल पर उन चेहरों को बेनकाब किया, जिन्हें लोग डर के मारे नाम तक नहीं लेते थे। उन्होंने यह साबित किया कि एक साहसी पत्रकार की लेखनी सबसे बड़े अपराधियों की नींव भी हिला सकती है।

रामचंद्र छत्रपति  (जन्म: 19 मार्च 1950 – मृत्यु: 21 नवंबर 2002) जिन्होंने हरियाणा में 'पूरा सच' अखबार की स्थापना की, पत्रकारिता के क्षेत्र में अपने साहस और सच्चाई के प्रति प्रतिबद्धता के लिए हमेशा याद किए जाएंगे। 2002 में, उन्हें एक गुमनाम पत्र मिला जिसमें डेरा सच्चा सौदा के प्रमुख राम रहीम पर गंभीर यौन शोषण के आरोप लगाए गए थे। राम रहीम के ताकतवर और प्रभावशाली होने के बावजूद, छत्रपति ने बिना डर के उस पत्र को अपने अखबार में प्रकाशित किया, जिससे डेरा के भीतर चल रहे काले कारनामों का पर्दाफाश हुआ।

इस खुलासे से राम रहीम और उसके समर्थकों ने छत्रपति को निशाना बना लिया। 24 अक्टूबर 2002 की रात, दो हमलावरों ने उन पर गोलियां चला दीं। कुछ दिन बाद, छत्रपति ने अपनी जान गवां दी, लेकिन उनका योगदान सच्चाई को सामने लाने में अमूल्य था। 11 जनवरी 2019 को सीबीआई अदालत ने राम रहीम और तीन अन्य को छत्रपति की हत्या का दोषी ठहराया।रामचंद्र छत्रपति के साहसिक कदमों ने ना केवल डेरा सच्चा सौदा के अंदर हो रहे अत्याचारों को उजागर किया, बल्कि कई महिलाओं के जीवन को भी सुरक्षित किया। उनके योगदान को कभी नहीं भुलाया जा सकेगा।

गौरी लंकेश जिनका जन्म 29 जनवरी 1962 को हुआ था, एक निर्भीक और साहसी पत्रकार थीं जिन्होंने हमेशा समाज में व्याप्त जातिवाद, धार्मिक कट्टरता और महिला अधिकारों पर अपने विचार व्यक्त किए। वे 'लंकेश पत्रिके' की संपादक थीं, जिसमें उन्होंने न केवल सांप्रदायिक घटनाओं और सरकारी दमन पर लिखा, बल्कि समाज के हाशिए पर रहने वाले वर्गों की आवाज़ को भी प्रमुखता दी। उनके लेखन ने उन्हें कई बार धमकियों का सामना कराया, लेकिन वे अपनी विचारधारा से कभी नहीं डिगीं। 5 सितंबर 2017 को बेंगलुरु में उनकी हत्या कर दी गई, जिससे पूरे देश में पत्रकारों की सुरक्षा को लेकर सवाल उठने लगे। एसआईटी जांच में सामने आया कि गौरी की हत्या योजनाबद्ध तरीके से की गई थी और इसमें कट्टरपंथी संगठनों का हाथ था। उनकी हत्या ने एक संगठित हिंसा नेटवर्क की पहचान की और पूरे देश में इसके खिलाफ विरोध-प्रदर्शन हुए। गौरी लंकेश का योगदान पत्रकारिता और समाज सुधार में हमेशा याद किया जाएगा।

लस्सा कौल का जन्‍म 1945 में हुआ, जो श्रीनगर दूरदर्शन केंद्र के निदेशक थे, अपने साहसी और देशभक्ति से भरे कार्यों के लिए जाने जाते हैं। उन्होंने 22 सितंबर 1989 को जब दूरदर्शन का कार्यभार संभाला, तब कश्मीर घाटी में हालात बेहद नाजुक थे और आतंकवाद अपने चरम पर था। कौल भारत समर्थित कार्यक्रमों को प्रसारित करते रहे, जिससे आतंकवादी संगठन नाराज हो गए। उन्हें बार-बार धमकियां दी गईं कि वे ऐसे कार्यक्रम दिखाना बंद करें, लेकिन कौल ने डरने के बजाय सच्चाई और देश के पक्ष में खड़े रहना चुना।

13 फरवरी 1990 को आतंकियों ने उन्हें गोली मार दी और उनकी हत्या कर दी गई। लस्सा कौल ने विपरीत परिस्थितियों में भी अपने कर्तव्य से मुंह नहीं मोड़ा। उनका यह बलिदान इस बात का प्रतीक है कि एक सच्चा पत्रकार और देशभक्त किसी भी दबाव के आगे नहीं झुकता। आज भी उनका नाम साहस, निष्ठा और पत्रकारिता की मर्यादा की मिसाल के तौर पर याद किया जाता है।

उपरोक्त सभी उदाहरण यह सिद्ध करते हैं कि पत्रकारिता केवल एक पेशा नहीं, बल्कि सच्चाई और जनहित की सेवा का एक साहसी मार्ग है। इन निर्भीक पत्रकारों ने अपने सिद्धांतों से समझौता नहीं किया और सच को सामने लाने की कीमत अपने प्राणों से चुकाई। उन्होंने सत्ता, आतंक, अपराध और सामाजिक कुरीतियों के विरुद्ध कलम उठाई और अपने कार्यों से यह संदेश दिया कि पत्रकारिता लोकतंत्र की आत्मा है।

हर साल 3 मई को 'विश्व प्रेस स्वतंत्रता दिवस' मनाया जाता है, ताकि उन पत्रकारों को याद किया जा सके जो बिना डर के सत्य को उजागर करते हैं। यह दिन हमें यह भी याद दिलाता है कि एक स्वतंत्र और निर्भीक प्रेस लोकतंत्र की नींव है, और उसे सुरक्षित रखना हम सबकी जिम्मेदारी है।

in News
THE NEWS GRIT 3 May 2025
Share this post
Tags 
Our blogs
Archive