भारत जैसे विविधता से भरे देश में जाति और धर्म लंबे समय से सामाजिक पहचान और सरकारी योजनाओं का आधार रहे हैं। लेकिन अब समय के साथ कुछ लोग ऐसी सामाजिक पहचान से मुक्त होकर केवल इंसान के रूप में जीना चाहते हैं – न जाति, न धर्म। ऐसे ही एक मामले में, मद्रास हाईकोर्ट ने 10 जून 2025 को एक ऐतिहासिक फैसला सुनाया है, जो संवैधानिक अधिकारों, धर्मनिरपेक्षता और मानव गरिमा की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम माना जा रहा है।
मामले की पृष्ठभूमि
इस फैसले की शुरुआत हुई एक नागरिक एच. संतोश की याचिका से, जिन्होंने तमिलनाडु सरकार से मांग की थी कि उन्हें और उनके परिवार को एक प्रमाणपत्र जारी किया जाए जिसमें यह कहा जाए कि वे किसी भी जाति या धर्म से संबंधित नहीं हैं।
हालाँकि, जिला प्रशासन और तहसीलदार ने यह कहते हुए उनकी याचिका अस्वीकार कर दी थी कि ऐसे किसी प्रमाणपत्र को जारी करने का कोई सरकारी आदेश (G.O.) उपलब्ध नहीं है, और तहसीलदार को ऐसा प्रमाणपत्र देने का अधिकार नहीं है।
एच. संतोश यह मामला हाईकोर्ट में ले गये और जब एकल पीठ ने याचिका खारिज कर दी, तो उन्होंने W.A. No. 401 of 2025 के तहत डिवीजन बेंच में अपील की।
इस मामले में अपीलकर्ता एच. संतोश, जिन्होंने 'जाति नहीं, धर्म नहीं' प्रमाणपत्र की मांग को लेकर याचिका दायर की थी। उनके विरोध में प्रत्युत्तरदाता के रूप में तीन प्रमुख सरकारी अधिकारी थे: तिरुपत्तूर जिले के जिला कलेक्टर, वहीं के तहसीलदार, और तमिलनाडु सरकार के राजस्व विभाग के प्रमुख सचिव। इन अधिकारियों ने इस आधार पर प्रमाणपत्र देने से इनकार किया कि ऐसे किसी प्रमाणपत्र को जारी करने के लिए कोई स्पष्ट सरकारी आदेश मौजूद नहीं है।
न्यायालय की विस्तृत व्याख्या
न्यायमूर्ति एम.एस. रमेश और एन. सेंथिलकुमार की पीठ ने इस मामले की गहराई से जांच करते हुए निम्नलिखित प्रमुख बातों को रेखांकित किया:
भारत में जाति और धर्म की सामाजिक स्थिति
· धर्म भारत में आस्था, संस्कार और सामाजिक पहचान का बड़ा आधार रहा है।
· भारत में हिंदू, मुस्लिम, ईसाई, सिख, बौद्ध और जैन धर्म प्रमुख रूप से प्रचलित हैं।
· जाति प्रणाली, विशेषकर हिंदू समाज में, लोगों को जन्म के आधार पर वर्गीकृत करती है – ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र और अनुसूचित जातियाँ (SC), जनजातियाँ (ST) और पिछड़ा वर्ग (OBC)।
संविधान की धारा 25: धार्मिक स्वतंत्रता
· अनुच्छेद 25 हर नागरिक को अपनी अंतरात्मा की स्वतंत्रता देता है, यानी कोई व्यक्ति किसी भी धर्म को अपना सकता है या चाहे तो न भी अपना सकता है।
· व्यक्ति को धार्मिक विश्वास को अपनाने, प्रकट करने, रीति-रिवाज निभाने और प्रचार करने की आज़ादी है।
याचिकाकर्ता की व्यक्तिगत घोषणा
· एच. संतोश ने कहा कि उन्होंने कभी सरकार से कोई आरक्षण या लाभ नहीं लिया, और न ही भविष्य में लेंगे।
· उन्होंने स्पष्ट किया कि वे अपने बच्चों को जाति और धर्म से मुक्त माहौल में पालना चाहते हैं।
तहसीलदारों द्वारा पहले दिए गए प्रमाणपत्रों के उदाहरण
पीठ के समक्ष तीन प्रमाणपत्र प्रस्तुत किए गए जो पहले ही तिरुपत्तूर, कोयंबटूर और अंबत्तूर के तहसीलदारों द्वारा जारी किए जा चुके हैं:
· दिनांक 05.02.2019 (तिरुपत्तूर तहसीलदार)
· दिनांक 27.05.2022 (कोयंबटूर तहसीलदार)
· दिनांक 18.08.2022 (अंबत्तूर तहसीलदार)
इन उदाहरणों से स्पष्ट हुआ कि इस तरह के प्रमाणपत्र पहले भी दिए जा चुके हैं।
संविधान बनाम सरकारी आदेश
कोर्ट ने कहा कि अगर कोई व्यक्ति संविधान के अंतर्गत अपने धर्म या जाति से अलग रहने की आज़ादी चाहता है, तो सिर्फ इसलिए उसे रोका नहीं जा सकता कि कोई विशेष सरकारी आदेश मौजूद नहीं है।
अंतिम फैसला:
· एकल पीठ द्वारा पारित पूर्व आदेश रद्द किया गया।
· जिला कलेक्टर और तहसीलदार को निर्देश दिया गया कि वे एच. संतोश की पिछली याचिकाओं (दिनांक 25.09.2023 और 15.12.2023) पर विचार करें और एक महीने के भीतर "No Caste No Religion" प्रमाणपत्र जारी करें।
· तमिलनाडु सरकार को आदेश दिया गया कि वह स्पष्ट सरकारी आदेश (G.O.) जारी करे, जिससे भविष्य में इस प्रकार की याचिकाओं को तहसील स्तर पर स्वीकार किया जा सके।
न्यायालय की टिप्पणी
“याचिकाकर्ता की यह माँग एक प्रशंसनीय प्रयास है जो भविष्य में जाति आधारित भेदभाव को खत्म करने में मदद करेगा। यह निर्णय अन्य नागरिकों के लिए भी प्रेरणा स्रोत बनेगा।”
इस फैसले का व्यापक महत्व
· वैकल्पिक पहचान की मान्यता:
यह निर्णय ऐसे नागरिकों के लिए एक नई राह खोलता है जो सिर्फ मानवता और नागरिकता के आधार पर अपनी पहचान चाहते हैं।
· संवैधानिक अधिकारों की पुष्टि:
अदालत ने यह स्पष्ट किया कि संवैधानिक अधिकारों को केवल प्रशासनिक नियमों के अभाव में रोका नहीं जा सकता।
· प्रेरणास्पद पहल:
यह निर्णय सामाजिक परिवर्तन की दिशा में एक मजबूत कदम है, जिससे आने वाली पीढ़ियाँ जातिवाद और धार्मिक पहचान के दायरे से बाहर निकलकर समभाव और मानवता के आधार पर जी सकेंगी।
मद्रास हाईकोर्ट का यह फैसला न सिर्फ एक व्यक्ति की याचिका पर न्याय है, बल्कि यह संविधान की आत्मा – स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व की पुष्टि करता है। यह निर्णय दिखाता है कि भारत का संविधान केवल किताबों तक सीमित नहीं है, बल्कि उसकी व्याख्या समय, समाज और व्यक्ति की चेतना के साथ विकसित होती है।
नोट: इस जानकारी में कुछ त्रुटि या कमि रह जाए तो उसे एक मानव त्रुटि माना जाए। इस खबर की पुष्टि पाठ्नकर्ता Madras High Court -Judgments and Daily Orders से और जानकाीयां इस केश से संबंधित प्राप्त कर सकते है।