भारत जैसे कृषि प्रधान देश में किसान केवल अन्नदाता नहीं, बल्कि समाज और पर्यावरण के आधार स्तंभ भी हैं। खेती की हर प्रक्रिया का प्रभाव न केवल किसान की आजीविका पर, बल्कि प्रकृति के संतुलन पर भी पड़ता है। हाल के वर्षों में फसल कटाई के बाद खेतों में बची हुई नरवाई को जलाने की प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है, जो एक गंभीर पर्यावरणीय और कृषि संकट का रूप ले चुकी है। यह समस्या सिर्फ वायु प्रदूषण तक सीमित नहीं है, बल्कि मिट्टी की उर्वरता, जलवायु परिवर्तन, और मानव स्वास्थ्य पर भी इसका प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। मध्यप्रदेश सरकार ने इस चुनौती को गंभीरता से लेते हुए कड़े कदम उठाए हैं और किसानों को पर्यावरण-अनुकूल विकल्प अपनाने की दिशा में प्रेरित किया है।
क्या होती है नरवाई और क्यों जलाते हैं किसान?
नरवाई शब्द फसल कटाई के बाद खेतों में बची सूखी डंठल और अवशेषों के लिए प्रयोग होता है। यह गेहूं, धान या अन्य अनाजों की कटाई के बाद खेतों में छूट जाती है। चूंकि इसे हटाना श्रमसाध्य और खर्चीला कार्य होता है, कई किसान इसे जलाकर खेत को दोबारा उपयोग में लाने की कोशिश करते हैं। हालांकि यह तरीका आसान प्रतीत होता है, लेकिन इसके पीछे छिपे दुष्परिणाम अत्यंत गंभीर हैं।
वायु प्रदूषण में भारी वृद्धि
नरवाई जलाने से खेतों में भारी धुआं उत्पन्न होता है, जिसमें कार्बन मोनोऑक्साइड, मिथेन, नाइट्रस ऑक्साइड, और अन्य जहरीली गैसें शामिल होती हैं। ये गैसें न केवल स्थानीय वायु गुणवत्ता को बिगाड़ती हैं, बल्कि वातावरण में ग्रीनहाउस प्रभाव को भी बढ़ाती हैं, जिससे जलवायु परिवर्तन की प्रक्रिया और तेज हो जाती है।
भारत के कुछ राज्यों में, जैसे पंजाब, हरियाणा और अब मध्यप्रदेश, में नरवाई जलाने से स्मॉग की स्थिति पैदा हो जाती है, जो मानव स्वास्थ्य के लिए अत्यंत हानिकारक होती है। इससे सांस संबंधी रोग, आंखों में जलन, और हृदय संबंधी समस्याएं बढ़ जाती हैं।
मिट्टी की उर्वरता को नुकसान
जब खेतों में आग लगाई जाती है, तो मिट्टी की ऊपरी परत का तापमान तेज़ी से बढ़ जाता है, जिससे उसमें मौजूद आवश्यक पोषक तत्व जैसे नाइट्रोजन, फॉस्फोरस, पोटैशियम और सल्फर या तो वाष्पित होकर हवा में उड़ जाते हैं या जलकर राख में बदल जाते हैं। ये राख पौधों के लिए उपयोगी नहीं होती, जिससे मिट्टी की प्राकृतिक उर्वरता में भारी गिरावट आती है। साथ ही, आग से मिट्टी में रहने वाले सूक्ष्मजीव भी नष्ट हो जाते हैं, जो पौधों की वृद्धि के लिए ज़रूरी जैविक प्रक्रियाओं को संचालित करते हैं। इससे न केवल मिट्टी का जैविक जीवन समाप्त हो जाता है, बल्कि उसका भौतिक ढांचा भी कमजोर हो जाता है, जिसके कारण किसान को उत्पादन बनाए रखने के लिए अधिक मात्रा में रासायनिक खादों का उपयोग करना पड़ता है।
सरकार की सख्ती का उद्देश्य
मुख्यमंत्री डॉ. यादव ने साफ़ कहा कि राज्य सरकार पर्यावरण संरक्षण और मृदा स्वास्थ्य के प्रति गंभीर है। इसलिए खेतों में नरवाई जलाना अब एक गंभीर अपराध माना जाएगा। इसके लिए दो स्तरों पर सख्ती की जाएगी:
मुख्यमंत्री किसान कल्याण योजना से वंचित करना – जो किसान अपने खेत में नरवाई जलाते पाए जाएंगे, उन्हें इस योजना का कोई भी वित्तीय लाभ नहीं दिया जाएगा।
MSP पर फसल उपार्जन नहीं होगा – सरकार ऐसे किसानों की फसल न्यूनतम समर्थन मूल्य पर नहीं खरीदेगी। इन दोनों कदमों से सरकार का उद्देश्य किसानों को आग के स्थान पर वैकल्पिक उपाय अपनाने के लिए प्रेरित करना है।
क्या हैं नरवाई प्रबंधन के वैकल्पिक उपाय?
राज्य सरकार और कृषि वैज्ञानिकों ने कई सस्टेनेबल और पर्यावरण-अनुकूल तरीकों की सिफारिश की है, जिनसे नरवाई को बिना जलाए खेत से हटाया जा सकता है या उसका पुनः उपयोग किया जा सकता है-
हैप्पी सीडर और सुपर स्ट्रॉ मैनेजमेंट सिस्टम (SMS) - जब खेतों में आग लगाई जाती है, तो मिट्टी की ऊपरी परत का तापमान तेज़ी से बढ़ जाता है, जिससे उसमें मौजूद आवश्यक पोषक तत्व जैसे नाइट्रोजन, फॉस्फोरस, पोटैशियम और सल्फर या तो वाष्पित होकर हवा में उड़ जाते हैं या जलकर राख में बदल जाते हैं। ये राख पौधों के लिए उपयोगी नहीं होती, जिससे मिट्टी की प्राकृतिक उर्वरता में भारी गिरावट आती है। साथ ही, आग से मिट्टी में रहने वाले सूक्ष्मजीव भी नष्ट हो जाते हैं, जो पौधों की वृद्धि के लिए ज़रूरी जैविक प्रक्रियाओं को संचालित करते हैं। इससे न केवल मिट्टी का जैविक जीवन समाप्त हो जाता है, बल्कि उसका भौतिक ढांचा भी कमजोर हो जाता है, जिसके कारण किसान को उत्पादन बनाए रखने के लिए अधिक मात्रा में रासायनिक खादों का उपयोग करना पड़ता है।
बायोगैस प्लांट और कंपोस्ट खाद - बायोगैस प्लांट और कंपोस्ट खाद दोनों ही ऐसे पर्यावरण-अनुकूल जैविक उपाय हैं जो कृषि अपशिष्टों और जैविक कचरे को उपयोगी संसाधनों में बदलते हैं। बायोगैस प्लांट में गोबर, फसल अवशेष और रसोई के जैविक कचरे को टैंक में सड़ाकर मीथेन गैस प्राप्त की जाती है, जिसका उपयोग ईंधन के रूप में किया जाता है, जबकि बची हुई सड़ी सामग्री उच्च गुणवत्ता वाली जैविक खाद के रूप में खेतों में डाली जा सकती है। दूसरी ओर, कंपोस्ट खाद पत्तों, घास, गोबर और रसोई कचरे को सड़ाकर तैयार की जाती है, जो मिट्टी की उर्वरता बढ़ाने में सहायक होती है और रासायनिक खाद की आवश्यकता को कम करती है। इन दोनों तकनीकों के माध्यम से न केवल किसानों को उर्वरक और ऊर्जा की वैकल्पिक व्यवस्था मिलती है, बल्कि नरवाई जलाने की आवश्यकता भी समाप्त होती है, जिससे पर्यावरण को भी संरक्षण मिलता है। भारत सरकार की नई योजना गोबरधन (GOBARdhan – Galvanizing Organic Bio-Agro Resources Dhan) के तहत, कम्प्रेस्ड बायो गैस इकाइयाँ स्थापित करने के लिए निवेशकों को करोड़ों की सब्सिडी के माध्यम से आमंत्रित किया जा रहा है।
फसल अवशेष से चारा और ईंधन - फसल अवशेष से चारा और ईंधन तैयार करना एक पारंपरिक, पर्यावरण-अनुकूल और लाभकारी तरीका है, जिससे खेतों में बचे डंठल, पत्तियाँ, भूसी आदि का सही उपयोग होता है। गेहूं, धान, मक्का, चना जैसी फसलों के अवशेषों को सुखाकर या ताज़ा रूप में पशुओं के लिए पोषणयुक्त चारे के रूप में इस्तेमाल किया जाता है, जिससे पशुपालन को मजबूती मिलती है। वहीं, यही अवशेष सुखाकर या प्रोसेस करके घरेलू ईंधन जैसे उपले, बायो-ब्रिकेट्स या बायोगैस के रूप में उपयोग किए जा सकते हैं। इस प्रकार, फसल अवशेषों का चारा और ईंधन के रूप में प्रयोग न केवल किसानों की आवश्यकता पूरी करता है, बल्कि नरवाई जलाने की समस्या का टिकाऊ समाधान भी प्रदान करता है।
किसानों की भूमिका और सामाजिक जिम्मेदारी
किसान केवल अन्नदाता नहीं हैं, वे पर्यावरण के संरक्षक भी हैं। उन्हें यह समझना होगा कि अल्पकालिक सुविधा (जैसे कि खेत की सफाई के लिए आग) दीर्घकालिक हानि का कारण बन सकती है – चाहे वह उत्पादन में गिरावट हो, मिट्टी की गुणवत्ता का नाश हो या पारिस्थितिकी तंत्र को नुकसान।
नरवाई जलाने की परंपरा भले ही तात्कालिक रूप से किसानों को सुविधा देती हो, लेकिन इसके दीर्घकालिक दुष्परिणाम अत्यंत गंभीर हैं – पर्यावरणीय असंतुलन, वायु प्रदूषण, मिट्टी की गुणवत्ता में गिरावट, और जनस्वास्थ्य पर खतरा। मध्यप्रदेश सरकार द्वारा उठाए गए कड़े कदम इस दिशा में एक सराहनीय पहल हैं, जो किसानों को सतत और वैज्ञानिक कृषि की ओर प्रेरित करते हैं। आवश्यकता इस बात की है कि किसान जागरूक बनें और अपनी पारंपरिक सोच में बदलाव लाते हुए वैकल्पिक तकनीकों जैसे हैप्पी सीडर, कंपोस्टिंग, बायोगैस और फसल अवशेषों के पुनः उपयोग जैसे उपाय अपनाएं। जब किसान पर्यावरण के साथ समन्वय में खेती करेंगे, तभी कृषि भी समृद्ध होगी और प्रकृति भी संरक्षित रहेगी।