मध्य प्रदेश के सिंगरौली ज़िले के बांधा गांव में इन दिनों एक अनोखी स्थिति सामने आई है, जहां दर्जनों अधूरे और सुनसान मकान, जिन्हें स्थानीय लोग ‘भूत बंगले’ कह रहे हैं। अचानक उग आए हैं। ये मकान बिना दरवाज़ों, खिड़कियों, बिजली या पानी की व्यवस्था के केवल मुआवज़ा पाने की मंशा से खड़े किए गए हैं। कई संरचनाएं केवल ईंट और मिट्टी से जल्दबाज़ी में बनाई गई हैं, कुछ तो एक हफ्ते के भीतर ही खड़ी कर दी गईं। इन मकानों का मकसद सिर्फ इतना है कि जब खनन परियोजना के लिए ज़मीन अधिग्रहित की जाए, तो इनके नाम पर आर्थिक लाभ हासिल किया जा सके। लोग ऐसा इसलिए कर रहे हैं क्योंकि उन्हें डर है कि कहीं उन्हें उचित मुआवज़ा न मिले या उनका नाम सूची से बाहर न कर दिया जाए। साथ ही, कुछ लोगों को यह भी लगता है कि बाहरी लोग तेजी से फर्जी निर्माण करके मुआवज़ा ले जाएंगे, इसलिए वे जल्दबाज़ी में खुद भी निर्माण कर रहे हैं। इस पूरे घटनाक्रम ने भूमि अधिग्रहण और पुनर्वास की प्रक्रिया की पारदर्शिता और प्रशासनिक निगरानी पर गंभीर सवाल खड़े कर दिए हैं।
घटना की समयरेखा और प्रशासनिक कार्रवाई
इस पूरे मामले की शुरुआत 3 नवंबर 2020 को हुई, जब Essel Mining and Industries Limited (Aditya Birla Group) को सिंगरौली जिले के बांधा कोल ब्लॉक का संचालन सौंपा गया। इसके बाद 14 जून 2021 को क्षेत्र में जनगणना की प्रक्रिया शुरू हुई, जिसमें 550 परिवारों को अधिग्रहण क्षेत्र में शामिल किया गया। लेकिन जैसे ही भूमि अधिग्रहण की प्रक्रिया आगे बढ़ी, कुछ जगहों पर तेजी से निर्माण कार्य शुरू हो गया, जिससे प्रशासन को संदेह हुआ। इसी को देखते हुए 12 मई 2022 को जिला कलेक्टर ने सेक्शन 11 लागू कर दिया, जिससे क्षेत्र में किसी भी नए निर्माण पर रोक लगा दी गई। इसके बावजूद 11 अप्रैल 2023 को 4,784 मकानों को पुनर्वास और मुआवज़े के लिए पात्र मानते हुए सूची में शामिल किया गया। बाद में कंपनी ने 28 जून 2024 को प्रशासन को शिकायत दी, जिसमें फर्जी निर्माण और नियमों के उल्लंघन का आरोप लगाया गया। अंततः, मामले की गंभीरता को देखते हुए 8 नवंबर 2024 को कलेक्टर ने 20 सदस्यीय जांच टीम गठित की, जो इन सभी मकानों की वैधता की जांच कर रही है।
ज़मीन पर सच्चाई
जब ज़मीन पर सच्चाई देखी गई तो हालात और भी चौंकाने वाले निकले। द इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट्स के मुताबिक, जब लगभग 200 घरों का मुआयना किया गया, तो ज़्यादातर मकान अधूरे, वीरान और बिना दरवाज़ों-खिड़कियों के पाए गए। कुछ में सिर्फ ईंटों का ढांचा खड़ा था, और खुद मालिकों ने माना कि ये मकान सिर्फ मुआवज़ा पाने के लिए बनाए गए हैं।
किसान प्रमोद कुमार ने बताया कि उन्होंने बच्चों के लिए ₹10 लाख खर्च कर घर बनवाया, लेकिन उन्हें नहीं पता था कि यह अवैध हो सकता है। वहीं, लाला सिंह ने आरोप लगाया कि उनके 60 साल पुराने घर को भी "नया निर्माण" बता दिया गया है, जबकि असली फर्जी निर्माण तो बाहरी लोग कर रहे हैं। विष्णुनाथ गुर्जर ने कहा कि उनके घर की लकड़ी अब बाजार में मिलती ही नहीं, फिर भी उसे नया मान लिया गया है। श्यामलाल ने तो यह तक दावा किया कि उनकी ज़मीन किसी और के नाम कर दी गई है। इस तरह के मकानों का निर्माण कैसे हुआ, इसका अंदाज़ा स्थानीय ठेकेदार कमलेश प्रसाद की बातों से मिलता है – उनके मुताबिक, एक कमरे का घर ₹1 लाख में एक हफ्ते में तैयार हो जाता है, तीन कमरों वाला ₹5 लाख में, और VIP टाइप छह कमरों का मकान बनाने में ₹15 लाख और एक साल लगता है।
प्रशासन और न्यायपालिका की भूमिका
इस पूरे मामले में प्रशासन और न्यायपालिका की भूमिका अब निर्णायक बन गई है। गांव के प्रधान देवेंद्र पाठक ने मामले को लेकर हाई कोर्ट में याचिका दायर की है। उनका कहना है कि कंपनी जानबूझकर पुराने घरों को भी "नया निर्माण" बताकर सही मुआवज़ा देने से बच रही है। वहीं, एसडीएम अखिलेश सिंह ने बताया कि 3,491 घरों की जांच की जा रही है ताकि यह तय हो सके कि कौन से घर मुआवज़े के योग्य हैं। कलेक्टर चंद्रशेखर शुक्ला ने माना कि जांच में समय लगेगा क्योंकि कई पक्षों ने कोर्ट का रुख किया है, जिससे प्रक्रिया लंबी हो गई है। इस बार प्रशासन ने ड्रोन सर्वे, सरकारी रिकॉर्ड और पुराने फोटो जैसे तकनीकी साधनों का सहारा लिया है, जिससे फर्जी निर्माण की पहचान की जा सके और पारदर्शिता बनी रहे।
कंपनी का नजरिया
इस मामले में Essel Mining का कहना है कि उन्होंने समय-समय पर क्षेत्र का निरीक्षण किया और पाया कि हर 4-5 महीने में मकानों की संख्या में असामान्य वृद्धि हो रही थी। कंपनी के अनुसार, उन्होंने यह बदलाव ड्रोन सर्वे, फील्ड विज़िट और सरकारी फोटो के ज़रिए दर्ज किए हैं, जिसके बाद उन्होंने प्रशासन को अनियमितताओं की जानकारी देकर आपत्ति दर्ज कराई। कंपनी का तर्क है कि वे सिर्फ यह सुनिश्चित करना चाहते हैं कि फर्जी निर्माण के आधार पर मुआवज़ा ना दिया जाए, और वास्तविक लाभार्थियों को ही इसका फायदा मिले।
बांधा गांव का यह मामला सिर्फ "भूत घरों" का नहीं है, बल्कि यह भूमि अधिग्रहण, पुनर्वास नीति और प्रशासनिक पारदर्शिता से जुड़ी गहरी चुनौतियों को उजागर करता है। जब मुआवज़ा नीति अस्पष्ट हो, सूचना का अभाव हो और बाहरी दबाव हो, तो आम जनता असुरक्षा की भावना से ऐसे कदम उठाने पर मजबूर हो जाती है। वहीं, कुछ लोगों ने इसका फायदा उठाकर तात्कालिक लाभ पाने के लिए नियमों की अनदेखी भी की। अब प्रशासन के सामने दोहरी चुनौती है। एक ओर फर्जी निर्माण की पहचान करना और दूसरी ओर वास्तविक निवासियों को न्याय दिलाना। इस पूरी प्रक्रिया में यदि निष्पक्षता और तकनीक का सही इस्तेमाल न हुआ, तो न केवल वास्तविक हकदारों के साथ अन्याय होगा, बल्कि यह देशभर के पुनर्वास और मुआवज़ा मामलों के लिए एक खतरनाक मिसाल बन सकता है। ऐसे में ज़रूरत है स्पष्ट नीति, समयबद्ध जांच और संवेदनशील प्रशासनिक रवैये की, ताकि विकास की राह में लोगों का भरोसा बना रहे।