भारत का संविधान हर नागरिक को समानता और धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार प्रदान करता है, लेकिन सामाजिक कुरीतियों और रूढ़िवादी परंपराओं ने अभी भी कई क्षेत्रों में अपनी पकड़ बनाए रखी है। छुआछूत जैसी अमानवीय प्रथाएं आज भी समाज के कुछ हिस्सों में जड़ें जमाए हुए हैं। हालांकि, हाल ही में पश्चिम बंगाल के गिधा ग्राम गांव में दलित समुदाय ने सदियों पुरानी प्रथा को तोड़कर ऐतिहासिक जीत हासिल की।
300 साल पुरानी परंपरा का अंत
12 मार्च 2025 को गिधा ग्राम के पांच दलित व्यक्तियों - श्यामतनु दास, लख्खी दास, पूजा दास, षष्ठी दास और ममता दास ने भारी पुलिस सुरक्षा के बीच गिधेश्वर शिव मंदिर में प्रवेश किया और पूजा-अर्चना की। यह घटना न केवल दलित समुदाय के लिए बल्कि पूरे समाज के लिए एक क्रांतिकारी कदम था। पश्चिम बंगाल के पूर्व वर्धमान जिले में स्थित यह गांव कोलकाता से लगभग 150 किलोमीटर दूर है।
लंबे संघर्ष के बाद मिली जीत
गांव में करीब 2000 परिवार रहते हैं, जिनमें से केवल 6 प्रतिशत दलित समुदाय के हैं। सदियों से चली आ रही छुआछूत की वजह से उन्हें मंदिर में प्रवेश की अनुमति नहीं थी। हालांकि, यह जीत एक दिन में नहीं मिली। महीनों की लड़ाई और प्रशासन से की गई अपीलों के बाद यह संभव हो पाया।
बीते महीने, दलित समुदाय ने जिला प्रशासन को पत्र लिखकर मंदिर में प्रवेश की अनुमति मांगी और भेदभाव की निंदा की। उन्होंने बताया कि उन्हें 'छोटी जाति' कहकर अपमानित किया जाता था और उनकी उपस्थिति को मंदिर के लिए 'अपवित्र' माना जाता था। इसके बाद, प्रशासन ने मंदिर समिति और उच्च जाति के ग्रामीणों के साथ कई बैठकें कीं।
प्रशासन की भूमिका
लगातार दबाव और चर्चाओं के बाद, कटुवा के सब-डिविजनल ऑफिसर (एस.डी.ओ) अहिंसा जैन ने घोषणा की कि दलितों को उनके पूजा के अधिकारों से वंचित नहीं किया जाएगा। उन्होंने स्पष्ट रूप से कहा कि प्रशासन किसी भी प्रकार के भेदभाव को बढ़ावा नहीं देगा।
इतिहास में दर्ज हुआ ऐतिहासिक पल
12 मार्च को, पुलिस और नागरिक स्वयंसेवकों की कड़ी निगरानी में दलित समुदाय के पांच लोग मंदिर पहुंचे। रेपिड एक्शन फोर्स ने पूरे क्षेत्र को घेर रखा था ताकि कोई अप्रिय घटना न हो। एक घंटे तक चली इस पूजा के दौरान, दलित समुदाय के लोगों की आंखों में खुशी और गर्व साफ झलक रहा था।
ममता दास ने इस अवसर को 'अविश्वसनीय' बताया और कहा कि वर्षों के अपमान और संघर्ष के बाद यह उनके सम्मान की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है। वहीं, स्थानीय दलित निवासी ऐकोरी दास ने कहा, "यह केवल एक मंदिर में प्रवेश की बात नहीं है, बल्कि हमारे सम्मान और अस्तित्व की लड़ाई है।"
गिधेश्वर शिव मंदिर और दलितों का संघर्ष
लंबे समय से, उच्च जाति के ग्रामीणों और मंदिर समिति ने परंपराओं का हवाला देकर दलितों के प्रवेश पर प्रतिबंध लगा रखा था। हालांकि, प्रशासन के दबाव और दलित समुदाय की सतत लड़ाई के बाद इस भेदभाव का अंत हुआ।
क्या यह सामाजिक बहिष्कार का अंत है?
यह जीत निश्चित रूप से ऐतिहासिक है, लेकिन क्या यह सदियों से चले आ रहे भेदभाव और बहिष्कार का अंत है? इसका उत्तर भविष्य में छिपा है। हालांकि, इस कदम से यह स्पष्ट है कि दलित समुदाय अब अपने अधिकारों के प्रति अधिक जागरूक हो रहा है और समाज में बराबरी के लिए संघर्ष जारी रखेगा।
यह घटना पूरे देश के लिए एक संदेश है कि समानता और न्याय के अधिकार को सुनिश्चित करने के लिए समाज को रूढ़ियों से मुक्त होना होगा। उम्मीद है कि यह सफलता अन्य क्षेत्रों में भी समान अधिकारों की दिशा में नए बदलाव लाएगी।