बाराबंकी जिले के एक छोटे से गांव निजामपुर में आज उम्मीद की एक नई किरण फूटी है। यह वह गांव है, जहां कोई भी 10वीं की परीक्षा उत्तीर्ण नहीं कर पाया था। लेकिन पहली बार, इस गांव के एक लड़के ने 10वीं की परीक्षा पास कर इतिहास रच दिया है। यह उपलब्धि हासिल की है 15 साल के रामसेवक ने, जिसने 55% अंक प्राप्त कर परीक्षा उत्तीर्ण की। उसने गरीबी, उपेक्षा और कठिन परिस्थितियों को चुनौती देते हुए न केवल अपने सपनों को जिंदा रखा, बल्कि पूरे गांव के भविष्य को भी एक नई दिशा देने का कार्य किया है।
गांव की तस्वीर और हालात
निजामपुर, बाराबंकी जिला मुख्यालय से लगभग 28 किलोमीटर दूर स्थित है। यह अहमदपुर ग्राम पंचायत का एक मजरा है, जहां कुल मिलाकर करीब 30 घर हैं और सभी दलित वर्ग से ताल्लुक रखते हैं। गांव की कुल आबादी 250 से 300 के बीच है और यहां के अधिकतर लोग मजदूरी करते हैं – कुछ स्थानीय स्तर पर, तो कुछ बाहर जाकर।
गांव में एक प्राथमिक स्कूल है और उसी के सामने एक छोटा-सा मंदिर। लेकिन शिक्षा का स्तर इतना पिछड़ा हुआ था कि गांव में आज तक कोई भी 10वीं पास नहीं कर पाया था। पहली बार इस रेखा को पार किया है रामसेवक ने, जिसे गांव के लोग रामसेवक नहीं, उम्मीद की रौशनी कहने लगे हैं।
गरीबी के अंधेरे में पढ़ाई की लौ
रामसेवक तीन भाइयों में सबसे बड़ा है। उसके पिता जगदीश प्रसाद मजदूर हैं और मां पुष्पा गांव के स्कूल में खाना बनाती हैं। घर की माली हालत ऐसी है कि दो कमरों के घर में एक में भूसा रखा जाता है और दूसरे में पूरा परिवार रहता है। बिजली नहीं है, और छप्पर के नीचे सब सोते हैं। एकमात्र रोशनी की व्यवस्था है विधायक कोटे से मिली सोलर लाइट।
शादी-विवाह के सीजन में रामसेवक सिर पर रोड लाइट उठाता, जिससे उसे 200-300 रुपए मिलते है। बाकी समय वह मजदूरी करता। इन्हीं पैसों से कॉपी-किताब और फीस भरता। 10वीं की फीस 2100 रुपए जमा की थी। देर रात जब काम से लौटता, तो छप्पर के नीचे बैठकर पढ़ाई करता।
हौसले को पहचान डीएम से मुलाकात
10वीं पास करने के बाद रामसेवक को जब बाराबंकी के डीएम शशांक त्रिपाठी ने बुलाया, तो उसके पास पहनने को ठीक कपड़े और जूते तक नहीं थे। स्कूल के शिक्षकों ने उसके लिए कपड़े और जूते खरीदे। यह रामसेवक के जीवन का पहला मौका था जब उसने जूता पहना। जूता पहनते वक्त उसकी उंगलियां फिट नहीं हो रही थीं, लेकिन वह किसी तरह पहनकर डीएम से मिलने पहुंचा। डीएम ने न सिर्फ उसे सम्मानित किया बल्कि आगे की पढ़ाई की फीस माफ करने की घोषणा भी की। रामसेवक भावुक होकर बताता है, जूता पहनना तो चाहते थे, अच्छा भी लगता है, लेकिन गरीबी ऐसी थी कि कभी जूता खरीद ही नहीं पाए।
मां-बाप का सपना, अब उम्मीद की राह
रामसेवक की मां पुष्पा कहती हैं, “हमें कभी भरोसा नहीं था कि हमारा बेटा 10वीं पास कर पाएगा। गांव में पढ़ाई का माहौल नहीं है, न साधन। लेकिन उसने कर दिखाया।” पिता जगदीश प्रसाद बताते हैं, “बेटे को मजदूरी में भी साथ ले जाते थे, फिर भी वह लौटकर पढ़ाई करता था।”
रामसेवक का छोटा भाई 9वीं में और एक और भाई 5वीं में पढ़ रहा है। सबसे छोटी बहन पहली कक्षा में है। अब परिवार का सपना है कि सभी बच्चे आगे पढ़ें।
इंजीनियर बनने का सपना
रामसेवक अब इंजीनियर बनना चाहता है। हालांकि जब वह यह बात कहता है, तो उसकी आवाज कांपती है, जैसे खुद को यकीन नहीं हो रहा हो। लेकिन उसका संघर्ष और मेहनत इस सपने को साकार करने की दिशा में पहला ठोस कदम है।
गांव की महिलाएं कहती हैं, “अब हम भी हमारे बच्चों को पढ़ाएंगे। रामसेवक ने हमें उम्मीद दी है कि हम भी कुछ कर सकते हैं।”
एक कहानी, एक क्रांति
रामसेवक की यह कहानी सिर्फ एक लड़के के 10वीं पास करने की नहीं है। यह उस सामाजिक बदलाव की शुरुआत है, जो शिक्षा की रौशनी से संभव होती है। जब संसाधन नहीं होते, तब हौसला और मेहनत ही सबसे बड़ा अस्त्र बन जाते हैं। निजामपुर अब शिक्षा से अपनी पहचान बनाने की राह पर है। और इस राह का पहला पत्थर रामसेवक ने रखा है – सिर पर लाइट उठाने वाला लड़का, जो अब खुद गांव के लिए रौशनी बन गया है।