गढ़ाकोटा का प्रसिद्ध रहस मेला न केवल ऐतिहासिक रूप से महत्वपूर्ण है, बल्कि यह सांस्कृतिक, धार्मिक और व्यावसायिक दृष्टिकोण से भी अत्यंत विशिष्ट है। यह मेला बसंत पंचमी से लेकर होली तक मनाया जाता है और इस वर्ष इसका 217वां संस्करण आयोजित किया जा रहा है। इस मेले की शुरुआत वीर बुंदेला महाराज के पौत्र राजा मर्दन सिंह जूदेव के राज्यारोहण की स्मृति में हुई थी।
रहस मेले का इतिहास
रहस मेले का इतिहास सन 1809 से जुड़ा हुआ है, जब वीर बुंदेला महाराज के पौत्र राजा मर्दन सिंह जूदेव ने अपने राज्यारोहण की स्मृति में इस मेले की नींव रखी थी। उस समय गढ़ाकोटा को हृदय नगर के नाम से जाना जाता था। यह नगर गधेरी और सुनार नदी के बीच स्थित है और इसका प्राचीन काल से ही ऐतिहासिक महत्व रहा है।
गढ़ाकोटा का नामकरण और ऐतिहासिक घटनाएँ
गढ़ाकोटा के नामकरण को लेकर दो किवदंतियां प्रसिद्ध हैं:
1. आदिवासी मूल निवासी: प्राचीन समय में यहाँ के प्रथम निवासी आदिवासी थे, जिन्होंने इस क्षेत्र को एक गढ़ (किला) के रूप में विकसित किया। इसी कारण इसे गढ़ाकोटा कहा गया।
2. राजपूत शासन: 17वीं शताब्दी में यह क्षेत्र राजपूत सरदार चंद्रशाह के अधीन था, जिन्होंने यहाँ एक सुंदर किला बनवाया जिसे 'कोटा' कहा जाता था। इसके बाद इसे गढ़ाकोटा नाम मिला। बाद में सन् 1703 में छत्रसाल के पुत्र हिरदेशाह ने इस किले पर कब्जा कर लिया और इस क्षेत्र में 'हिरदेनगर' नामक नगर बसाया।
राजा मर्दन सिंह जूदेव और रहस मेला
सन् 1785 में राजा मर्दन सिंह जूदेव गढ़ाकोटा के शासक बने। वे एक कुशल प्रशासक थे और उन्होंने इस क्षेत्र में किले और बावड़ियों का निर्माण करवाया। उनका प्रमुख योगदान 1809 में रहस मेले की शुरुआत करना था, जो आज भी उसी परंपरा के साथ आयोजित किया जाता है।
रहस मेले का नामकरण
रहस मेले का नाम 'रहस' क्यों पड़ा, इसके पीछे एक ऐतिहासिक कारण है। उस समय देश में अंग्रेजों का शासन था और भारतीय शासक उनके खिलाफ गुप्त रूप से रणनीतियाँ बनाते थे। इस मेले में हाथी-घोड़ों की खरीद-बिक्री के बहाने विभिन्न राज्यों के राजा एकत्र होते थे और अंग्रेजों से युद्ध की योजनाएँ बनाते थे। चूंकि इस मेले में योजनाओं का रहस्य छिपा रहता था, इसलिए इसे 'रहस मेला' कहा जाने लगा।
रहस मेले का वर्तमान स्वरूप
वर्ष 2003 में जब क्षेत्रीय विधायक पं. गोपाल भार्गव प्रदेश के कृषि मंत्री बने, तब उन्होंने इस मेले को विराट और भव्य स्वरूप प्रदान किया। अब यह मेला कृषि मेला, किसान मेला और पंचायती राज मेले के रूप में भी जाना जाता है।
मुख्य आकर्षण
· पशु मेला: जिसमें विशेष रूप से हाथी, घोड़े, बैल और अन्य पशुओं की खरीद-बिक्री होती है।
· सांस्कृतिक कार्यक्रम: जिसमें लोक नृत्य, संगीत, नाटक और कवि सम्मेलन आयोजित किए जाते हैं।
· धार्मिक आयोजन: गढ़ाकोटा का यह मेला सामाजिक और धार्मिक दृष्टि से भी महत्वपूर्ण है, जहाँ हजारों श्रद्धालु भाग लेते हैं।
· व्यावसायिक केंद्र: यह मेला व्यापारियों के लिए भी एक बड़ा केंद्र है, जहाँ विभिन्न वस्तुओं की बिक्री होती है।
गढ़ाकोटा का ऐतिहासिक किला और बुर्ज
गढ़ाकोटा अपने अजय दुर्ग (किले) के लिए भी प्रसिद्ध है। यहाँ 100 फीट ऊँची तथा 15 फीट चौड़ी बुर्ज का निर्माण हुआ था, जिससे सागर एवं दमोह के जलते हुए दीपों को देखा जा सकता था।
रहस मेला न केवल गढ़ाकोटा की ऐतिहासिक धरोहर है, बल्कि यह संस्कृति, परंपरा, कृषि और व्यापार का एक महत्वपूर्ण संगम भी है। 217 वर्षों से चली आ रही यह परंपरा आज भी उतनी ही जीवंत और भव्य है, जितनी अपने प्रारंभिक काल में थी। इस मेले का आयोजन बसंत पंचमी से होली तक किया जाता है और यह प्रदेश के सबसे बड़े मेलों में से एक माना जाता है।
(सोर्स पी.आर.ओ सागर)